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कहाँ है भगवान् ?? पूजते हैं जिसे सभी कहाँ है वो ?   क्या सो रहा है वो ? हमे तो लगता है हमेशा सिर्फ सोता है वो दुनिया की काया पलटती जा रही है   भूख बीमारी चोरी बढ़ती जा रही है बलात्कार जिस्म फरोशी का व्यापार है अपनी चरम सीमा पर छोटी नन्ही जानों को ख़रीदा बेचा जाता है   ये पथरदिल पुरुष कैसे कर पाता है   वासना का शिकार हमे आज इस दुनिया में हर आदमी नज़र आता है और भगवान अपनी आँखों से यह सब देखता जाता है कल जिस कृष्णा ने बचाई थी द्रौपदी की लाज   है कहाँ वो आज ??   आज लाखों द्रौपदियों को वो बेसहारा छोड़ कहाँ अपनी बंसी बजाता है रोज यह व्यापार और अत्याचार बढ़ता जा रहा है   एक नारी के चरित्र को यूँ कुछ कदमो तले कुचला जा रहा है भगवान सो रहा है   इंसान जुर्म कर रहा है   अब हमे खुद ही कुछ करना होगा   अपने व्यक्तित्व को खुद ही बचाना होगा यूँ खेलने ना दो किसी को अपने जज़्बातों और हालातो से   छेड दो तुम युद्ध कर दो क़त्ले आम   आ जाओ काली के अवतार में   ना रहो अबला नारी   ना हो तुम बेचारी सशक्त स्वरुप है तुम्हारा करो तुम नर संहार   ले लो जिंदगी की बागडोर अपने हाथ में   करे कोई
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बचपन ——— वो एक खिलखिलाती मुस्कुराहट देखी आज चौराहे से गुज़रते हुए हमने ख़ामोश बचपन की नुमाइश देखी वो बचपन जो भूख और बेगारी में कहीं खो गया वो बचपन जो माँ बाप की आमदनी का जरिया बनकर रह गया उस बचपन की खाली आँखें देखी वो बचपन जिसे खुशनुमा होना था वो बचपन जिसे किताबों की भीड़ में कहीं खोना था उस बचपन को आज ट्रैफिक के बीच लोगों का मनोरंजन करते देखा आज हमने उस बचपन का सब कुछ खोते हुए देखा वो बचपन था अनजान अपने खोये हुए वजूद से वो बचपन था अनजान चिलचिलाती धुप से सिर्फ एक आकाश था उसका हाथ में दिया गया एक सिक्का खास था उसका उस बचपन का आलम देख हम स्तब्ध रह गए पल भर हमें कुछ न समझ आया और हम वहीँ ठहर गए इससे पहले की हम कुछ सोच पाते गाड़ियों के शोर ने हमे जगाया एक पीछे वाले भाईसाहब ने हम पर बहुत चिल्लाया उस बचपन की बेचारगी का तो हम कुछ नहीं कर पाए लेकिन उस अँधेरे के आलम से हम खुद को नहीं निकाल पाए हम निकल तो आये उस चौराहे से लेकिन शायद अपना एक पल हमेशा के लिए उसी मोड़ पर छोड़ आये कब होगा ये बचपन आज़ाद कब होगा इस देश का विकास बस इसी जद्दोजहद में जिंदगी के एक हिस्से को हम वहीं भूल आये ।।